‼️ ऐं सुख तू कहाँ गई ‼️
ऐं सुख तू कहाँ गई, इधर गई या उधर गई।
पूछ रहा तेरा साथी, मुझको छोड़ किधर गई।।
ढूंढा तुझको मैं हर पल, हर किसी के तन-मन में।
न जाने कितनी नजरों, कितनी पवित्र अंग-अंग में।
जब नहीं मिली तुम मुझे, मेरी दादी के आंगन में।
चला गया वहां-वहां, मिली जिस-जिस ऊपवन में।
ढूंढा तुझे ऊँचे-ऊँचे मकानों, बड़ी बड़ी दुकानों में।
बाग-बगीचा ताल-तलैया, काली मां के मंदिर में।
ढूंढा उस काली मां के मंदिर में......
ऐं सुख तू कहाँ गई...........
वो सपनों में ढूंढ रही थी, खुद मुझसे ही पूछ रही थी।
कोई जानी-पहचानी जगह है, वहीं मेरा हमसफ़र है।
वो कर रहा है इन्तज़ार, मुझको भी उसी की है तलाश।
क्या आपको कुछ पता है? मेरा साथी कहाँ रहता है।
मै कुछ कुछ छूपा रहा था, मन ही मन बता रहा था।
मेरे पास रूह का पता था, जो सुबह शाम रहता था।
दो अटूट प्रेम बंधन था, हर जनम हो रहा संगम था।
दिल से शिकायत लिखवाई, कोशिश कामयाब हो आई।
कुदरत ने दोनों को मिलावाई, ईश्वरीय देन रास न आई।
उम्र अब मेरी ढलान पर है, हौसला अब थकान पर है।
उसकी तस्वीर है मेरे पास, अब बची हुई है थोड़ी आस।
ऐं सुख तू कहाँ गई...........
मैं भी अब हार नही मानूंगा, सुख के रहस्य को जानूँगा।
बचपन में मिला करती थी, मेरे साथ ही रहा करती थी।
जबसे मैं बड़ा हो गया, मेरा सुख मुझसे जुदा हो गयी।
मैं फिर भी नही हुआ हताश, जारी रखा उसकी तलाश।
एक दिन आवाज आई, क्या मुझको ढूंढ रहे हो मेरे साईं?
उस बातों में एहसास था, उसको तो मेरा ही तलाश था।
सब पिछले जनम की बात था, जो सब उसको याद था।
इस जनम पहली मुलाकात था, सुख-दुख दोनों साथ था।
खुद दोनों ने आगे बात बढ़ाई, सुख ने हरि के द्वार बुलाई।
ऐं सुख तू कहाँ गई...........
सपने अपनी पूरी कर, जनम भूमि घर जब वो आई।
बहुत प्रताड़ित हुईं आकर, फिर भी राज नही बताईं।
सहती रही हर वार, तब अन्य खुशी की नही तलाश।
कवी ह्दय है उसके पास, न है कोई अब मुझसे आस।
नही था रिस्ता जिसके साथ, पा गई अब उसका साथ।
हर तरह का अच्छा रिश्ता, अब बता रही उसके साथ।
अब पा गई कवी मन-मंदिर, दी मन से दुख को तलाक।
ऐं सुख तू कहाँ गई...........
भटक गयी है अब वो राह, करती नही मुझे अब याद।
उसके बुरे समय तक रहा, उसको बस मेरी ही याद।
मिली थी जब वो मुझसे, कहती रही सदा हूं तुझसे।
मैं तेरे अन्दर छुपी हुई हूँ, तेरे ही घर में बसीं हुईं हूँ।
मेरा नहीं है कुछ भी मोल, सिक्कों में मुझको न तौल।
मैं बच्चों की मुस्कानों में हूँ, पत्नी रुप तेरे अरमानों में हूँ।
परिवार के संग जीने में, माँ बाप के आशीर्वाद में हूँ।
ऐं सुख तू कहाँ गई...........
रसोई घर के पकवानों में, बच्चों की सफलता में हूँ।
माँ की निश्छल ममता में हूँ, हर पल तेरे संग रहती हूँ।
और अक्सर तुझसे कहती हूँ, मैं तो हूँ अब एक एहसास।
बंद कर दो तू मेरी तलाश, जो मिला उसी में कर संतोष।
तुम कल की न सोच, कल के लिए आज को न खोना।
मेरे लिए दुखी न होना, बस हो गया मिलन जो होना।
अब नही रहूंगी तेरे पास, मेरा मिल गया अपना साथ।
ऐं सुख तू कहाँ गई...........
दर-दर ढूंढा हर घर ढूंढा, कोषों दूर थी मिली बिमार।
देव भूमि से चली गई, जाकर मिली थी हरि के द्वार।
समझ न पाया मै उसको, वो तो निकलीं बड़ी मक्कार।
बन बैठा था मै अनजान, अंतिम उसकी है घर-द्वार।
पा गई अब खुशी अपनी, कर दी मुझको दरकिनार।
देवभूमि से निकल वो, भवसागर में फिशल गई,
अच्छा-खासा मिला ठिकाना, चुपके से चीपक गई।
ऐं सुख तू कहाँ गई, इधर गई या उधर गई।
पूछ रहा तेरा साथी, मुझको छोड़ किधर गई।
यह कविता मेरे मन की कल्पना है
अगर किसी पर सटीक बैठती हो
तो महज़ एक संयोग है।
स्वरचित -✍ अमित श्रीवास्तव