77वीं स्वतंत्रता दिवस 2023 विशेष - स्वाधीनता के असल महानायक थे - नेताजी सुभाष चंद्र बोस
वर्ष 2023 को 15 अगस्त के दिन भी भारतवासियों ने एक अनोखा दृश्य के साथ अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाते बडी-बडी बातें करते भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सूना और देखा। 15 अगस्त को दिल्ली के लालकिले पर ध्वजारोहण करने वाले भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंग्रेजों द्वारा दिए गए अग्रेजी वर्ष 2023 में दूसरी बार तिरंगा फहराया। यह अवसर था आजाद हिंद सरकार की 77वीं वर्षगांठ की किन्तु देश के प्रधानमंत्री अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाते रहते हैं। सरकार की उपलब्धियों को तो दिन-रात मिडिया संस्थाओं के माध्यम से पहुंचा ही दिया जाता है और हकीकत क्या रहता है धरातल पर दिखाई देता ही है। इस अवसर पर उन वीर सपूतों को भूल जाते हैं जो अंग्रेज़ी हुकूमत को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। यह बात लगभग सभी को ज्ञात है कि अंग्रेज़ महात्मा गाँधी के आंदोलन से नही सुभाष चंद्र बोस चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह आदि गरम दल के आंदोलन से त्रस्त हो भारत छोड़कर जाने का फैसला किए। यह गरम दल आज़ादी की लड़ाई अंग्रेजों से लड़ रही थी और गांधी समझौता से अग्रेजी हुकूमत से भारत को मुक्त कराने में लगे थे।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस द्वारा गठित आजाद हिंद फौज सरकार भारत की, भारतियों द्वारा तथा भारत के लिए पहली सरकार थी। इससे पूर्व राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने भी 1915 काबुल में अंग्रेजों से स्वतंत्र भारतीय सरकार की घोषणा की थी किंतु 21 अक्तूबर, 1943 को नेता जी द्वारा सिंगापुर में गठित आजाद हिन्द सरकार ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ा। इस सरकार को जापान तथा जर्मनी सहित नौ देशों की मान्यता प्राप्त थी। 30 दिसंबर को अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पर भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा फहरा कर आजाद हिंद सरकार ने आजाद भारत की घोषणा की। अंडमान निकोबार के नाम बदल कर ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ कर दिए गए।
23 जनवरी 1897 को उच्च शिक्षित बंगाली परिवार में जन्मे सुभाष चंद्र बोस की प्रतिभा देखकर सब सोचते थे कि वे ब्रिटिश सरकार में बड़े सिविल अधिकारी बनेंगे। परिवार के आग्रह पर सुभाष बाबू ने सिविल परीक्षा में अपनी योग्यता सिद्ध भी की, किंतु इसके पश्चात उन्होंने अंग्रेजी सरकार का नौकर बनने की अपेक्षा देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का मार्ग चुन लिया।
शीघ्र ही वे कांग्रेस के प्रमुख नेता बन गए। 1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। सुभाष चंद्र बोस युवाओं में लोकप्रिय हो रहे थे। उनका मानना था कि केवल अहिंसक सत्याग्रहों से देश स्वाधीन नहीं होगा। इस विषय पर महात्मा गांधी के साथ उनका मतभेद हुआ और 1939 में सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस की अध्यक्षता त्याग दी। 03 मई 1939 को उन्होंने फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की। सितंबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। सुभाष ने इस अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास प्रारंभ कर दिए। उन्होंने वीर सावरकर, डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार तथा डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे अग्रणी राष्ट्रभक्तों से भेंट की तथा ब्रिटिश शासन पर निर्णायक प्रहार के उद्देश्य से काम करने लगे।
सुभाष चंद्र बोस की जीवनी
1940 में अंग्रेजों ने उन्हें बंदी बना लिया। 1941 में वे अंग्रेजों से बच निकले और गुप्त रूप से अफगानिस्तान होते हुए विदेश चले गए। यूरोप के कई देशों में उन्होंने हजारों देशभक्त भारतीय युवाओं को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित किया।
इधर, वीर सावरकर देशभक्त युवकों को ब्रिटिश सेना में घुसाकर सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने और फिर साथी सैनिकों को देशभक्ति के लिए प्रेरित कर सेना में विद्रोह करवाने की योजना पर कार्य कर रहे थे।
विएना में सुभाष बाबू को जीवन संगिनी के रूप में एमिली शैंकल मिलीं। 1942 में इन दोनों की पुत्री अनिता बोस का जन्म हुआ, किंतु विपरीत परिस्थितियों के कारण 1943 में सुभाष चंद्र बोस को अपने परिवार से दूर सिंगापुर जाना पड़ा। यहाँ सुभाष बाबू के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज सफलता की ओर बढ़ने लगी। सुभाष चन्द्र बोस ने जैसे ही दिल्ली चलो का उद्घोष किया, ब्रिटिश भारतीय सेना में विद्रोह होने लगे।
1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे एटली ने 1965 में भारत की निजी यात्रा में सी.डी. चक्रवर्ती के सामने अनौपचारिक रूप से स्वीकारा था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की बड़ी भूमिका थी। नेताजी अपनी फौज के साथ बढ़ते-बढ़ते इंफाल तक आ चुके थे। आजाद हिंद फौज से प्रेरणा लेकर भारत की ब्रिटिश नौसेना तथा वायुसेना में विद्रोह हो गया था।
सुभाष चंद्र बोस का देश के प्रति योगदान
दुःखद तथ्य यह है कि जिस सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज को विदेशों से समर्थन प्राप्त हो रहा था उनका अपने देश भारत में अहिंसा के नाम पर विरोध हो रहा था। जिन लोगों ने भारतीयों को झूठी आजादी की चोला पहनाया उन्हीं का आज देश गुणगान कर रहा है वास्तविक बीर सपूत "लाल-पाल-बाल" लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, और बिपिन चंद्र पाल शुरुआती ब्रिटिश भारत में मुखर राष्ट्रवादियों की एक तिकड़ी थी। इनसे अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गयी थी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और नरम दल महात्मा गांधी की अगुवाई में मोतीलाल नेहरू आदि समझौते की, आजादी की लड़ाई के विरोध के मूल में भारतीय वाममार्गी थे। सुभाष चंद्र बोस ने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम प्रसारण जारी कर विजय के लिये उनका आशीर्वाद व शुभकामनाएं मांगी थी किंतु बर्मा और इम्फाल तक आ पहुँची आजाद हिंद फौज को अहिंसावादियों के नायक महात्मा गांधी का समर्थन नहीं मिला। 1945 में जापान की द्वितीय विश्व युद्ध में पराजय के कारण नेताजी को अपना अभियान स्थगित करना पड़ा। 18 अगस्त 1945 को मंचूरिया के रास्ते में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त होने का समाचार आया। उनकी मृत्यु को लेकर संशय आज भी बना हुआ है किंतु राष्ट्र के प्रति आजादी को लेकर उनका अतुलनीय योगदान संदेह से परे है। भारत माता को अग्रेजी हुकूमत से मुक्त कराने के लिए सर्वस्व अर्पित करने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सहित लाल-पाल-बाल, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि महानायक के प्रति सारे राष्ट्र को कृतज्ञ होना चाहिए, 15 अगस्त व 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व पर इन वीर सपूतों को नमन करना चाहिए।