पत्रकार राघवेंद्र वाजपेई की हत्या: सरकार की निष्क्रियता और पत्रकार सुरक्षा पर उठते सवाल
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र वाजपेई की दिनदहाड़े हत्या ने एक बार फिर प्रदेश की कानून-व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। राघवेंद्र वाजपेई, जो दैनिक जागरण से जुड़े थे, भ्रष्टाचार और अपराध से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग कर रहे थे। उनकी निडर पत्रकारिता शायद कुछ लोगों को रास नहीं आई, और उन्हें हमेशा के लिए चुप करा दिया गया। इस निर्मम हत्या के बाद पत्रकारों के बीच गुस्से और भय का माहौल बन गया है, लेकिन सरकार और प्रशासन की ओर से कोई ठोस कार्रवाई अब तक नहीं दिख रही है।
8 मार्च 2025 को, जब राघवेंद्र वाजपेई अपने घर से निकले, तो उन्हें शायद अंदाजा भी नहीं था कि यह उनका आखिरी सफर होगा। हेमपुर नेरी रेलवे क्रॉसिंग के ओवरब्रिज के पास, अज्ञात हमलावरों ने उनकी बाइक को टक्कर मारकर गिराया और फिर उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा दीं। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, हत्या सुनियोजित थी, क्योंकि अपराधी मौके पर उनका इंतजार कर रहे थे। गोली मारने के बाद हमलावर फरार हो गए, और पुलिस अभी तक उनकी कोई ठोस जानकारी हासिल नहीं कर पाई है।
हत्या के बाद प्रदेश भर में आक्रोश फैल गया। पत्रकारों और सामाजिक संगठनों ने सरकार और प्रशासन की निष्क्रियता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। मछलीशहर, लखनऊ, कानपुर, वाराणसी सहित कई जगहों पर पत्रकारों ने सरकार से न्याय की मांग की और दोषियों की गिरफ्तारी के लिए दबाव बनाया। इसके बावजूद, 48 घंटे से अधिक समय बीत जाने के बाद भी पुलिस अपराधियों तक नहीं पहुंच पाई है।
पत्रकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं, लेकिन सरकार की ओर से सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। जब एक पत्रकार जो ईमानदारी से भ्रष्टाचार और अपराध का पर्दाफाश कर रहा था, उसकी हत्या कर दी जाती है, तो यह न केवल प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि यह दर्शाता है कि अपराधी कितने बेखौफ हो चुके हैं।
लोकसभा में इस मुद्दे को समाजवादी पार्टी के सांसद आनंद भदौरिया ने उठाया और मांग की कि इस मामले की सीबीआई जांच कराई जाए। उन्होंने यह भी कहा कि मृतक पत्रकार के परिवार को 50 लाख रुपये का मुआवजा और उनकी पत्नी को सरकारी नौकरी दी जाए। हालांकि, सरकार की ओर से अभी तक कोई ठोस जवाब नहीं आया है।
उत्तर प्रदेश में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है, लेकिन कोई प्रभावी कानून नहीं बनाया गया। पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग बार-बार उठी है, लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। क्या सरकार तब तक चुप बैठी रहेगी जब तक और पत्रकारों की हत्या नहीं हो जाती?
प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन जब सरकारें और प्रशासन पत्रकारों की सुरक्षा में असफल होते हैं, तो यह लोकतंत्र पर सीधा हमला होता है। भारत का प्रेस फ्रीडम इंडेक्स पहले ही 161वें स्थान पर पहुंच चुका है, और ऐसी घटनाएं इसे और नीचे ले जाएंगी।
इस घटना से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ईमानदारी से पत्रकारिता करना अब जानलेवा हो चुका है। सरकार को चाहिए कि वह तुरंत दोषियों को गिरफ्तार करे, पीड़ित परिवार को न्याय दे, और पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करे ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। पत्रकारों का खून अगर यूं ही सड़कों पर बहता रहा, तो यह लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत होगा।
अब सवाल यह है—क्या सरकार इस बार न्याय दिलाएगी, या फिर एक और पत्रकार की मौत सिर्फ एक आंकड़ा बनकर रह जाएगी?