बहु-बेटी और सास
बहु-बेटी और सास
सम्पादक - अमित श्रीवास्तव की कलम से
“बहु बेटी की तरह होती है” बस यह कथनी और करनी का अंतर है क्यों की? ना ही कभी बहु बेटी बन पाती है, ना सास माँ के वास्तविक स्वरूप में दिखाई देती है। उपर चढ़ कर देखा घर घर का एक ही लेखा पर लेख को आगे बढाते हैं। हम बारीकि से अध्ययन करेंगे तो देखेंगे कि कुछ घर की लाडली बेटी बिना कुछ काम करे ही सारे घर का मन मोहे रहती हैं, महीने भर में एक बार सब्जी बना दी तो सारा घर तारीफों के पुल बांध देता है वहीं बहु सुबह से शाम तक काम करती रहती है.. फिर भी किसी को उसका काम दिखाई नहीं पड़ता…आखिर क्यों ? उसका एक वक्त का खाना..ना..बनाना भी सबको नागवार गुजरता है…कोई बड़ी बात नहीं है..कि ऐसी स्थिति में बीमार बहु पर सास नाटक करने का लांछन तक लगा दे… वहीं कामकाजी महिलाओं के साथ स्थितियां और भी विपरीत होती जातीं हैं… उन्हें घर और बाहर दोनों जगह सामंजस्य बैठाना पड़ता है। घर का काम… बाहर के दायित्व… ससुराल वालों के नाराज होने का डर बहु को हर वक्त कश्मकश में डाले रहते है…. तब वह सिर्फ अपने कर्तव्यों के निर्वहन में लगी रहती है। एक बेटी होने का सुख उससे बहु बनते ही छीन लिया जाता है, बिस्तर पर चाय पीने वाली बेटी… सुबह सबकी चाय बनाती दिखती है। सबको पीला खुद पीने पड़ते है उसे इतना कड़वे घूंट..क्यों..?सास, ससुर व् परिवार के लोगों द्वारा किया गया दुर्व्यवहार.. क्या घर में आई बहु को पूरा सम्मान दे पाता है…? नहीं…ऐसी स्थिति में वह अंजान लड़की अपने मन में ससुराल वालों के प्रति बेटी होने की कोमल भावनाओं को कैसे पल्लवित कर सकती है,? या बेटी का रूप ले सकती है। वहीं हम यह भी देखते हैं कि लड़कियाँ भी अपने भाई, बहन, पिता और माँ के अनरूप व्यवहार…अपने ससुराल पक्ष के लोगों से नहीं कर पाती….उसके व्यवहार में..ससुराल वालों के प्रति अनजाने डर भरी दूरी बनी रहती है,? जिस स्नेह से वह मां की गोद में सर रख कर लेट पाती है सास की गोद में कभी नहीं लेट पाती। क्या हम इस दूरी को मिटा पाएंगे? और बहु को बेटी व सास को माँ के रूप में देख पाएंगे,?….तो हाँ ऐसा संभव है ‘ब’..शर्त कि.. आप बेटी की तरह बहु की कमियों को भी, नजरंदाज करें…उसके सर का दर्द.. आपके लिए चिंता का विषय हो.. ताने का नहीं… उसकी खुशी आपके लिए मायने रखती हो धीरे धीरे उसके मन में भी…आपके लिए कोमल भावनाओं का पल्लवन होगा, और एक दिन बेटी के रूप में वो आपके सामने खड़ी होगी। वहीं बहु भी…ससुराल पक्ष को तहजीब और सम्मान दिखाने के बदले एक बेटी सा निच्छल अपनापन दे दे तो हर हाल में..हम इस वाक्य को गरूर से..कह सकते हैं कि “बहु बेटी की तरह नहीं, बेटी ही होती है”। एक ही वाक्य में यह कहना कि बहू बेटी की तरह होती है—सत्य है या असत्य संभव नहीं है। इसके लिए हमें कल और आज समाज में आए सामाजिक सोच के परिवर्तन के बारे में मिमांशा करनी पड़ेगी। सोच में परिवर्तन हर पल हर घड़ी हो रहा। कल की सोच में और आज की सोच में अमूलचूल परिवर्तन आ रहा है। आर्थिक निर्भरता, शिक्षा की कमी, बाल-विवाह तथा समाज में असुरक्षा का बोध की वजह से समाज में बहू के प्रति जो विचार पोषित थे आज की पीढ़ी उसे पूर्णतया नकार रही है। आज भी जहां बाल विवाह का चलन है वहां बहू बेटियों की स्थिति कुछ और है। उत्तर प्रदेश का एक जनपद लखीमपुर खीरी का रीति रिवाज अपने ही एक महिला पत्रकार से जान कर दंग हो गया। धर्म पूजन की प्रथा वहां आज भी निर्धारित है धर्म पूजन प्रथा को हम भी समझने में असमर्थ थे शायद आप भी न समझ रहे हो इस लिए जानकारी के अनुसार खुलासा करता हूँ। लडकियों का धर्म पूजन मतलब मासिकधर्म से पहले कन्या दान अब विचार करें जिन बेटियों का मासिकधर्म से पहले बहू बना दिया जाए उन बेटियों की जिन्दगी का सपना साकार कैसे होगा और उनकों बहू के साथ साथ पत्नी रूप में हक अदा करने की सोच कहाँ से और कैसे आयेगी। उन बहूओ पर कैसे कैसे ताने-बाने कसे जाते हैं, धर्म पूजन करने वाले मां-बाप इस आधुनिक युग में कितने प्रतिशत विवेकशील है सहज ही अन्दाज़ लगाया जा सकता है ऐसे प्रथाओं को जान कर स्पष्ट हुआ उत्तर प्रदेश का लखीमपुर जिला आज भी पिछड़ा क्यूँ है? ऐसी प्रथा का पालन करने वाले मां-बाप की मानसिकता को जाना अपनी बेटियों का दुःख दर्द जान कर भी मान-सम्मान पर आंच न आये नजरअंदाज कर मरने के लिए मजबूर कर देते हैं। वहां बेटियों को शिक्षा का अवसर भी नही प्राथमिक से जूनियर तक जाते-जाते धर्म पूजन मतलब शादी। उन बहू-बेटियों की जिन्दगी कैसा होगा सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रथा को विस्तार से अगले लेख के लिए विराम देते हैं। पूनः आते हैं मुख्य मुद्दा बहू बेटी सास- आज बहू अपने अधिकार व कर्तव्य के प्रति सचेत है। एक घर की बेटी ही दूसरे घर की बहू बनती है। उसके अपने जीवन के सपने होते हैं, जिसे वह जीवन साथी के साथ मिलकर साकार करना चाहती है। इसके लिए वह अपने सास ससुर से अपेक्षा रखती है कि वे उसे सहयोग दें। आज की शिक्षित नारी आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर है। हम फिर इसी मुद्दे पर आते हैं कि–बहू बेटी की तरह होती है—सत्य या असत्य है। मेरे विचार से बहू बेटी की तरह होती है। हमें उसका पूर्ण सम्मान करना चाहिए। उसे अपनेपन का इतना विश्वास मिले कि ससुराल में आकर अपने आपको सुरक्षित महसूस करे–उसकी भावना की कदर की जाती है,–उसे भरपूर प्यार मिलता है यह विश्वास आने पर वह कहीं किसी भी कोण से सिर्फ बहू न बन कर पूरी तरह बेटी होने का फर्ज अदा करने में नहीं हिचकिचायेगी। सास ससुर से प्यार पाने पर उन्हें पूरा आदर सम्मान देगी, उनकी देखभाल करेगी। इसलिए मैं पूरे विश्वास के साथ इस कथन का समर्थन करता हूँ कि बहू बेटी की तरह होती है। साथ ही यह भी सच है कि जहाँ दो बर्तन होंगे बजेंगे तो जरूर–इसे हमें समझदारी से संभाल कर रखना होगा। लेकिन एक प्रश्न हमेशा मन को करोंचता है कि हर संभव उपाय करने पर भी सास को बहू कभी भी माँ की तरह स्वीकार नहीं कर पाती—आखिर क्यों? आज की सास भी पढी लिखी खूले विचारों की होती है। समय परिवर्तन के साथ मानसिकता में भी निरंतर बदलाव आ रहा है। आज के समय की बात करें तो ज्यादातर लड़कियों की पश्चिमी देशों की तरह सोच हो गई है–उसका परिवार –पति और उसके बच्चों तक ही सीमित हो कर रह गया है। वह अपने जीवन व परिवार में किसी दूसरे का हस्तक्षेप पसंद नहीं करती। यही चलता रहा तो आगत काल में सास ससुर की परिवार संचालन में कोई भूमिका ही नहीं रह जायेगी। दोनो तरफ से पहल हो तो इस रिश्ते को और भी मजबूती मिलेगी, आपसी सहयोग की आवश्यकता है।इससे इसके कथन को मजबूती मिलेगी। इंद्रधनुषी ख्वाबों की बारात ले लडकियाँ ससुराल आती है और पीछे छोड़ आती है-बाबुल का अंगना, नेह दुलार की छाँव। बचपन से ही उन्हें ये बात घुट्टी की तरह पिलायी जाती है कि पिया का घर ही तेरा अपना होगा। वो मन में संकल्प करती है सास -ससुर का सेवाभाव से, ननद- देवर को प्यार दुलार से,पिया को मनुहार से जीत लुंगी। लेकिन जब ससुराल जाती है तो उसे परायेपन का अहसास होता है तो उसके सपने धरासायी हो जाते है। ससुराल वाले को सोचना चाहिये कि बहु अपना सबकुछ छोड़ कर हमारे घर आयी है। इसलिए हमे उसका दिल जीतना होगा ,उसे यह विश्वास दिलाना होगा कि ये घर तुम्हारा है। तुम्हारा आना सुखदायी है। लेकिन अफ़सोस आधुनिक युग में भी लोग बहु को बेटी सा प्यार नहीं देते। उससे आज भी ढेर सी अपेक्षा रखते है।जो कदापि उचित नहीं है। बेटी कहना नहीं मानना होगा तभी हम सार्थक बदलाव की अपेक्षा कर सकते। ठीक उसी तरह बहु भी बेटी की तरह ससुराल वालो के सुख -दुःख की साझीदार बने। किसी गलती पर बड़े -बुजुर्ग सख्ती से बोल दे तो बेटी की तरह सह जाना चाहिये, दिल पर नही लेना चाहिये। बीमार पड़ने पर उनकी देख-रेख करनी चाहिए।
यह सत्य है की बहू का दूसरा नाम बेटी है, पर इसे मानते कितने लोग है। ज्यादातर लोग सिर्फ कहने को बहु को बेटी कहते है, पर उसके व्यवहार बेटी के जैसा नही करते। कारण चाहे जो हो, पर सच्चाई तो यही है की हम में से अधिकांश लोग जैसा दिखते है, वैसा होते नही। जितना प्यार,जितना करुणा बेटी के प्रति हमारे ह्र्दय में होता है, उसका आधा भी हम बहु को नही दे पाते। अगर गलती हमारे बेटे -बेटी का भी हो, तो दोष बहु के मत्थे ही डालते है। ये ऐसी सच्चाई है जो सब करते है पर कहते नही या यूँ कहे मानते नही। ये चलन बहुत पुरानी है और कब तक चलेगी पता नही। एक स्त्री माँ के रूप में कितनी ममतामयी होती है पर दूसरे ही पल सास बनते उसका रूप विकराल क्यों हो जाता है। वो सारी ममता कहाँ विलुप्त हो जाती है। मेरे एक परिचित ने कहा था। ”बेटी तो मेरी है पर बहु को अपना बनाना है।” कितनी सार्थकता है इस बात में। सच में बेटी तो अपनी है। हमे अच्छे से जानती है। हमारे प्यार को भी और हमारे गुस्से को भी,पर बहु तो अनजानी है,पहले उसे अपने प्यार, अपनेपन से अपना बनाना होगा तभी तो वो हमें समझ पायेगी और एक बेटी की तरह हमारे आस -पास प्यार से मंडराती फिरेगी और तब जाके यह कथन पूर्णरूपेण सत्य साबित होगा की ये बहु नही हमारी बेटी है। दिखावे के लिए नही वरण हकीकत में ऐसा होगा। कथन पूर्णत सत्य है कि बहू बेटी की तरह होती है। प्रत्येक सास को अपनी बहू को खुद की बेटी की तरह प्रेम देना चाहिए।बहू को भी सास को अपनी माता की तरह संभालना चाहिए। सास बहू का रिश्ता सदियों से मिर्च जैसे तीखेपन के लिये मशहूर रहा है पर सबसे बड़ी बात यह है कि कोई भी स्त्री सास बनने से पहले माँ होती है। बहू बनने से पहले बेटी होती है। एक सास का बहू के प्रति बेटी जैसा नजरिया होना चाहिए क्योंकि वो भी किसी की बेटी है। बहू भी अपनी सास को जन्मदात्री माँ माने सास नहीं। सास मे माँ है ऐसा परिणाम अंतरग मे उतारे तो कभी कलह नहीं होगा। जैसे बेटी का रिश्ता आपसी समझदारी और निस्वार्थ भावना के साथ परस्पर प्रेम से कामयाब होता है वैसे ही बहू मे आपसी सौहार्द का एहसास होना चाहिए। विश्वास और अपनेपन की मिठास से बहू बेटी का रिश्ता आज भी जीवित रखा जा सकता है। यदि सास उदार और विन्रम दृष्टिकोण यदि बेटी के प्रति रखती है तो बहू के प्रति भी रखना चाहिए। अपनी लाडली बेटी का पालन-पोषण आधुनिक परिवेश मे समस्त सुख सुविधा से स्वतंत्रतापूर्वक करती है तो बहू के हर क्रियाकलापों मे परम्परा व लोकलाज की दुहाई भी नहीं देनी चाहिए। आज जबतक हम बहू को बेटी की तरह सम्मान, बेटी सा स्नेह नहीं देगें तबतक बहू को बेटी का दर्जा नहीं मिलेगा। हमारी बहू भी किसी की परिवार की बेटी है जिस प्रकार हमारी बेटी किसी परिवार की बहू है। यदि हम बहू को बेटी की तरह मान देगें तो इससे बेटे के दिल मे माँ की इज्जत और बढ जायेगी।किसी भी रिश्तों की मजबूती का आधार यहीं है उसकी खूबियों और खामियों के साथ स्वीकारा जाये। हमे पूर्वाग्रहो के पिंजरों से मुक्त होकर बहू को बेटी की तरह ही सहर्ष स्वीकारना चाहिए तभी तो बहू को बेटी मानेगें। आधुनिक समाज मे हमें अपनी सोच को भी आधुनिक बनाना होगा। बहू बेटी के अंतर को मिटाना होगा। यदि हम बेटी को आजादी दे सकते है तो बहू को क्यो नहीं? बेटी का जन्मदिन मना सकते है तो बहू का क्यों नहीं? यदि बेटी बाहर नौकरी करने जा सकती है तो बहू क्यों नहीं? जब तक इस सोच को नही बदलेगें तब तक बहू को बेटी नही मान पायेगे। जब बहू को बेटी की तरह मान मिलेगा तो वह भी सास को माँ की तरह समझेगी। सम्मान देकर ही सम्मान पाया जाता है। यहाँ पर पूर्णत चरितार्थ होती है। सास का बहू के प्रति और बहू का सास के प्रति समर्पण भाव चाहिए कभी एक हाथ से ताली नहीं बजती।एक पहिये की गाड़ी नहीं चलती। रिश्ते चाहे खून के हो या खुद चुने हुये, सफल रिश्ते वहीं है जो दिल से जुड़ते है और स्नेह, शुभाकांक्षा आपसी समझ की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर हमारे जीवन को दिशा देते हैं। बहु और बेटी, क्या हम दोनों को एक समान देखते हैं ? कहते तो सब यही है कि बहु हमारी बेटी जैसी है लेकिन हमारा व्यवहार क्या दोनों के प्रति एक सा होता है ? नही, बहु सदा पराई और बेटी अपनी, बेटी का दर्द अपना और बहु तो बहु है अगर सास बहु को सचमुच में अपनी बेटी मान ले तो निश्चय ही बहु के मन में भी अपनी सास के प्रति प्रेमभाव अवश्य ही पैदा हो जायेगा। अपने माँ बाप भाई बहन सबको छोड़ कर जब लड़की ससुराल में आती है तो उसे प्यार से अपनाना ससुराल वालों का कर्तव्य होता है। हम सब अपने बेटे की शादी के लिए पढ़ी लिखी संस्कारित परिवार की लड़की दूंढ कर लाते हैं,जिसके आने से पूरे घर में खुशियों की लहर दौड़ उठती है, लेकिन सास और बहु का रिश्ता भी कुछ अजीब सा होता है और उस रिश्ते के बीचों बीच फंस के रह जाता है बेचारा लड़का, माँ का सपूत और पत्नी के प्यारे पतिदेव, जिसके साथ उसका सम्पूर्ण जीवन जुड़ा होता है, कुछ ही दिनों में सास बहु के प्यारे रिश्ते की मिठास खटास में बदलने लगती है और सास का बेटा तो किसी राजकुमार से कम नही होता और माँ का श्रवण कुमार, माँ की आज्ञा का पालन करने को सदैव तत्पर, ऐसे में बहु ससुराल में अपने को अकेला महसूस करने लगती है, और बेचारा लड़का, एक तरफ माँ का प्यार और दूसरी ओर पत्नी के प्यार की मार, उसके लिए असहनीय बन जाती है और आखिकार एक हँसता खेलता परिवार दो भागों में बंट जता है, लेकिन यह इस समस्या का समाधान नही है, परन्तु आख़िरकार दोष किसका है? दोष तो सदियों से चली आ रही परम्परा का है, दोष सास बहु के रिश्ते का है, सास बहु को बेटी नही मान सकती और बहु सास को माँ का दर्जा नही दे पाती।सास को अपना ज़माना याद रहता है जब वह बहु थी और उसकी क्या मजाल थी कि वह अपनी सास से आँख मिला कर कुछ कह भी सके, लेकिन वह भूल जाती है कि उसमे और उसकी बहु में एक पीढ़ी का अंतर आ चुका है, उसे अपनी सोच बदलनी होगी, बेटा तो उसका अपना है ही वह तो उससे प्यार करता ही है, और अगर वह अपनी बहु को माँ जैसा प्यार दे, अपनी सारी दिल की बातें बिना अपने बेटे को बीच में लाये सिर्फ अपनी बहु के साथ बांटे, उसका शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से साथ दे तो बहु को भी बेटी बनने में देर नही लगेगी। ईश्वर ने जब इस सृष्टि की रचना की, तब उसने इस सृष्टि की सबसे अद्भुत, अकल्पनीय, मानवीय मूल्यों से लबरेज़, ममता की प्रतिमूर्ति, प्रतिरूप की रचना की अर्थात् स्त्री की रचना की। स्त्री ही वह एकमात्र कारक जिसके बिना इस सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस संसार में स्त्री के बहुत सारे रूप हैं। एक स्त्री किसी की माँ होती है, तो किसी की पत्नी होती है, तो किसी की बहन, बुआ, मामी, चाची, काकी होती है, तो किसी की बहु भी होती है। जब कोई बेटी इस संसार में आती है तो माँ-बाप के दिल के किसी कोने से ये आवाज आती है कि “भगवान ने उनकी आखिरी साँस तक उनका ख्याल रखने के लिए माता लक्ष्मी को भेजा है।” कुछ ही क्षण बाद उन्हें यह भी एहसास होता था कि “बेटियाँ पराया धन होती है और एक ना एक दिन छोड़ कर चली जाएँगी। ”जब वही बेटी शादी के बाद अपने ससुराल पहुँचती थी तो वहाँ लोग कहते थे “ये तो परायी है, ये हमारे सुख-दुःख को नहीं समझेगीं, हमें अपना कभी नहीं मानेंगी। ”लेकिन आज के शिक्षित समाज ने इस पराये शब्द को ही पराया कर दिया है। यह हमारे समाज के लिए, हमारे राष्ट्र के लिए एक उपलब्धि है। आज जब एक बेटी, बहु बन कर दूसरे घर मे जाती है तो उसे वहाँ वही प्यार, वही स्नेह, वही विश्वास मिलता है तो अब वह उस परिवार की केवल बहु ही नही अपितु बेटी भी बन जाती है।परिवार के सदस्यों की सही देखभाल करने के कारण भी आज हमारे समाज मे बहुओं और बेटियों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता है।आज के इस शिक्षित समाज मे जब हम अपने आस-पास नजरें दौड़ते है तो हमें बहुत सारे ऐसे परिवार मिल जाते है जहाँ बहुएँ अपने परिवार के सम्मान, प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सदैव बेटियों की भाँति तत्पर रहती हैं।
ऐसी बहुओं को परिवार में बहु का दर्जा कम और बेटी का दर्जा ज्यादा मिला हुआ है। आज समाज जैसे-जैसे बेटे और बेटियों के बीच का अंतर कम करते जा रहा है वैसे-वैसे बहुओं और बेटियों के बीच फर्क रूपी खाई भी पटती जा रही है। आज जब एक बेटी किसी परिवार की बहु बनती है तो अपने शिक्षा, संस्कारों, कार्यकुशलता और कर्तव्यपरायणता के कारण धीरे-धीरे उस परिवार की बहु से उस परिवार की बेटी के रूप में बदलती जाती है। आज समाज के अधिकांश वर्ग इस पावन धारणा की ओर अग्रसर हो चुके हैं कि “बहुएँ घर की बेटियाँ है।” वहीं भारत जैसे विशाल राष्ट्र में अभी भी कुछ संकुचित मानसिकता व अशिक्षित परिवार है जो इस पावन धारणा को स्वीकार नहीं कर पायें हैं। मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि अगर एक घर की बेटी अगर किसी दूसरे घर की बहु बनती है और वहाँ एक बेटी का दर्जा प्राप्त करती है तो इसमें उसका तथा उस परिवार के सदस्यों का एक दूसरे पर विश्वास एवं स्नेह ही उसे उस परिवार में बेटी का दर्जा, मुकाम दिलाता जा रहा है। अंत में हम कह सकते हैं कि हमारा शिक्षित समाज बहुओं को बेटियों का दर्जा देता जा रहा है जो एकदम सही कदम है। सदियों से चला आ रहा है ये प्रश्न कि बहु बेटी की तरह ही होती है। पर हकीकत यह है कि आज तक इसका निष्कर्ष नही निकल पाया क्योंकि आदि काल से लेकर आजतक कभी भी बहु और बेटी के बिच का सम्बन्ध या इस रिश्ते को एक जैसा मुकाम नही मिला। जिस परिवार में बेटी नहीं होती और बहु आने के बाद उसे बेटी के समान कहा तो जाता है पर दैनिक जीवन में विभिन्न अवसरों पर बहु बेटी का अंतर अक्सर दिखाई देता है। कुछ परिवारों में बेटी के होने पर भी बहु को बेटी से भी ज्यादा अपनापन दिया जाता है। इसलिए यह कहना असंगत नही होगा कि उक्त कथन ”बहु बेटी की तरह होती है या नही” ना तो सत्य है और ना ही असत्य। इसका जवाब सत्य या असत्य की जगह व्यक्तिगत सोच और मानसिकता पर निर्भर करता है। कई बार पढ़े लिखे लोग भी अपनी बहु को बेटी का दर्जा नही दे पाते, कारण चाहे जो भी हो, वही कहीं अनपढ़ पर समझदार लोग अपनी बहु और बेटी में कोई अंतर नही रखते। उनके लिए बहु भी बेटी की तरह ही होती है। अतः यह कथन ना तो पूर्णतया सत्य कहा जा सकता है और ना ही असत्य। निर्भर इस बात पर करता कि जिस परिवार में कोई लड़की शादी करके जाएगी है वहां के लोगों की मानसिकता कैसी है? पढ़े लिखे होना अलग बात होती है और समझदार होना अलग। यह लोगों की मानसिकता पर निर्भर करता है कि बेटी बहु एक समान हो या उनमे अंतर। साथ ही सामाजिक परिवेश और खुद लड़की के अपने व्यवहार और परवरिश पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है । अतः इसका उत्तर समरूपी देना या पाना असंभव नही है पर एकसमान भी नही दिया जा सकता, हाँ या नही में तो बिलकुल भी नही। जैसी सोच वैसा ही परिणाम। परिवार मे अक्सर बहु और सास के सम्बन्ध विवादों मे ही रहते हैं। अक्सर इन सम्बन्धो के पीछे जो भूमिका होती हैं वो एक माँ की होती हैं। एक माँ एक बहु को अलग और अपनी बेटी को अलग सलाह देती हैं। यदि एक माँ बेटी और बहू का अंतर समाप्त कर दे तो जीवन सुखमयी हो जायगा। ये अंतर किस तरह दूर होगा इस पर। आज ये बताया जा रहा हैं की गलती कैसे और कौन करता हैं। एक छोटी सी कहानी।संतोषि घर मे अकेली थी, बेटा बहू के साथ बहू की बीमार माँ को देखने चला गया था। उसने कुछ पूछा भी नहीं बस आकार बोला – माँ हम लोग जरा स्मृति की माँ को देखने जा रहे है शाम तक आ जाएँगे। आपका खाना स्मृति ने टेबल पर लगा दिया है टाइम पर खा लेना, तुम्हारी दवाएं भी वही रखी है खा लेना भूलना मत, और दरवाजा अच्छे से बंद कर लेना। ”कहता हुआ वो स्मृति के साथ बाहर निकल गया। पर बहू ने एक शब्द भी न कहा। “क्या वो कहती तो क्या मै मना कर देती। बहुयेँ कभी बेटी नहीं बन सकती आखिर बेटी तो बेटी ही होती है। “वे सोचती हुई गेट तक आई और अच्छी तरह गेट बंद कर दिया। बाहरी कमरे मे टी वी ऑन कर बैठ गई। कुछ ही देर बाद डोर बेल घनघना उठी। उठ कर दरवाजा खोला देखा उनकी अपनी बेटी दामाद के साथ खड़ी है। खुशी से उनका चेहरा खिल उठा। बेटी को गले लगाते हुए पूछा- “तेरी सास ने मना नहीं किया ”, “वह बोली उनकी सुनता कौन है उनके लिए तो उनका बेटा ही काफी है। वही उनको संभाल लेते है मै तो बोलती भी नहीं। और आज भी ये ही उन्हे बोल कर आए हैं मैंने न उनसे कुछ पूछा न कहा। बस ड्यूटी पूरी कर देती हूँ ताकि बेटे से शिकायत का मौका न मिले। ”मुसकुराते हुए उन्होने बेटी की इस करतूत को आसानी से भुला दिया। अब आप ही सोचो की गलती किसकी हुई। बहू और बेटी ” में समानता और असमानता केवल सोच की है जो बेटी है वो किसी और घर की बहू बननी है और जो बहू है किसी के घर की बेटी है बस केवल अन्तर यह है कि एक जाती है नया संसार बसाने तो दूसरी बेटे का नया संसार बसाने आती है दोनों ही स्थितियों में वंश परम्परा का बढ़ना सुनिश्चित है बहुओं को बेटी बनाकर रखा जाए तो सासु और बहू के लिए जीवन सफर सरल तो होगा ही साथ ही घर के सभी लोग परस्पर नेह के बंधन में भी बँधे रहेगे। पोतियों का जन्म होने पर उनको महान बनाकर सर्वश्रेष्ठ एवं गौरवान्वित महसूस करो। बेटी किसी भी बात में कम नही है पुरुष के बराबर कदम से कदम मिला चल रही है। बेटी को सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत कर अच्छी बहू बनाया जा सकता है प्राय: देखने में आता है कि लोग सोशल मीडिया जैसे साइट्स फेसबुक, वाट्सप्प, ट्वीटर आदि पर अपनी बेटियों, बहुओं और पोतियों के साथ फोटो डालकर एवं शेयर कर अपने अनुभव को साझा करते हैं इससे पारस्परिक सामजस्य तो बढता ही है साथ ही जीवन समरसता भी बनी रहती है। इसलिए सास का भी दायित्व बनता है कि बहू को बाहर से आयी न समझकर उसको परिवार में बेटी का दर्जा दें जिससे उसको नया परिवार न मान अपना ही घर मानकर चलें।बदलते परिवेश में ऐसी फैमिलियाँ भी है जहाँ सास और बहू मां-बेटी की तरह रहती हैं। आपस में उनमें तू-तू,मैं-मैं नहीं होता, बल्कि एक-दूसरे को समझती हैं चाहती हैं। यदि सुख और दुखों का साथ साथ बँटवारा करती हैं और एक-दूसरे का संबल और सहारा बनती हैं। इक्कीसवीं सदी की सासु माँ प्राचीन सासु माँओ की तरह न होकर काफी सुलझी हुई है वो बहू पर बंधन नहीं लादती है आजादी प्रदान करती है इसका उदाहरण विवाहोपरान्त जब वे शिक्षा प्राप्त करती है तो अपने बच्चों को भी छोड़ जाती है।इसलिए यह तथ्य कि बहू बेटी की तरह होती है यह कथन सत्यता प्राप्त तभी कर सकता है जब एक छत के नीचे सास- बहू दोनों माँ बेटी का रिश्ता बना रह पायेगी। बहू बेटी की तरह अक्सर हम जब भी सामाजिक रिस्तों और पीड़ी-दर पीड़ी से चली आ रही रूणिगत परंपराओं की बात करते हैं तो कुछ परंपराएँ कुछ रिस्ते समाज के ताने-बाने से बुने होते हैं। कहा जाता है कि बेटी नहीं होगी तो बहू कहाँ से लाओगे। परंपरागत रीति-रिवाज, तौर-तरीकों को घर-परिवार का रहन-सहन तो प्रभावित करता ही है वे रिस्ते भी प्रभावित करते हैं जो हमारी दिन-चर्या से जुड़े होते हैं। ऐसा ही एक रिस्ता उस बेटी का है जिसने हमारे घर में जन्म तो नहीं लिया, पर वह हमारे लिए उन रिस्तों की कुर्बानियाँ देकर अपना घर-द्वार छोड़कर हमारे आँगन की बगिया को रोशन कर रही है। जब बेटी थी घर में तब भी चमक रहती थी और आज बहू है तब भी घर खुशियाँ से महक रहा है। इस चमक-दमक को सजने और संवारने की शुरूआत तो कल उस बेटी ने किया था जो स्वयं सबसे प्यारे रिस्तों की कुर्बानियाँ देकर अपने ससुराल चली गई और आज जब घर में बहू आ गई है तो वह घर को सजाने-और संवारने का काम कर रही है। फिर हमारा सभ्य समाज घर की बहू को दहेज और बच्चे पैदा करने की मशीन क्यों समझने लगा है? दुर्भाग्य इस बात का भी है कि हमारे घर में माता-पिता, चाचा-चाची, भाई-बहन, मामा-मामी, नाना-नानी, सब रिस्तों की बगिया से भरा पड़ा है और बेटी को बिदा करते समय कलेजे का लावा आंसुओं की कतार बनकर निकला था, हमने उसे दुआएं भी दी थीं कि जा बेटी तू अपने सुसुराल में सुख की हर मंजिल को पा ले। पर फिर भी हम हमारे घर आई बेटी समान बहू को यातनाएँ देने में कतई संकोच नहीं करते हैं। औछी मानसिकता और बहू को गुलाम समझने वाले सभ्य समाज का चेहरा भले ही हर दिन हमारा जागरूक इलेक्ट्रोनिक मीडिया और प्रिन्ट मीडिया उजागर करता रहता है। पर फिर भी औछी मानसिकता की बेड़ियों में बंधा हुआ हमारा सभ्य समाज बहू को बेटी मानने को तैयार नहीं है। बेटी आज बेटी है कल किसी की बहू होगी पर समय के रिस्तों को स्वीकार न करना, बहू को बेटी ना समझना, सभ्य समाज का जाना पहचाना चेहरा बन चुका है। समाज का ताना-बाना बुना ही कुछ ऐसे है कि बेटी जन्म इस घर में लेगी और बहू बनके रोशन उस घर को करेगी आखिर वो पहले बेटी थी आज किसी की बहू है कल किसी की सास होगीं तो समझने की बात है बहू बेटी की तरह ही है। भारतीय संस्कृति और इस जग की आविष्कारक औरत ही है। कहते हैं हर पुरूष की कामयाबी के पीछे एक औरत का हाथ होता है पर फिर भी हम और हमारा अपंग समाज यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है आखिर क्यों? जिस औरत ने हमारी कामयाबी के लिए माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, भैया-भाबी अपना सब कुछ भूलकर अपने सुसुराल में सर्वत्र समर्पित कर दिया आज उसी बेटी को असमानता की नजरों से देखने में यह सभ्य समाज परहेज नहीं कर रहा है। एक तरफ बात होती है बेटी बचाने की पर जब बहू-बच जाऐगी तो बेटी भी आ जाएगी। बहु भी किसी की बेटी होती है और किसी के आगनं की बहु। बाबुल के घर और पिया के आंगन के परिवतन ने उसके जीवन में बदलाव की रेखा को और भी ज्यादा बढा दिया है या यू कहे मर्यादा का पालन करना उसे ही सिखलाते हैं।अकसर गांव में मध्य वर्ग परिवारो मे आज भी वही आकंडे मापे जाते हैं। जैसे बहु पर्दे मे अच्छी लगती है उसे घुघंट निकालना चाहिए। बड़े लोगों से सवाल जबाब नहीं करे पुरुषों से बातचीत न करे आदि अनेक प्रतिबंध उस पर लगाए जाते हैं। कई लोग तो इतनी बुरी तरह से बहु को रखते हैं कि शब्दों में कहा नहीं जा सकता है पर्याप्तता भोजन की व्यवस्था भी उसके लिए नही होती है उसकी भावनाओं का मखौल बना दिया जाता है। ससुराल को अरमानों का घर समझ आती है और अर्थी मे अपने साथ अरमानों को ले जाती है। वही बेटी की ख्वाहिश में रंग भरे जाते हैं उचित अनुचित मांगे पूरी की जाती है। आज भी ऐसे दरवाजे मिल जाएगे जहां बहुएं जलाई जाती है। हा वर्तमान में हालात में सुधार हुआ है क्योंकि भारत में भी शिक्षा का दौर शुरू हो गया है। बेटियों को भी शिक्षा के लिए भेजा जाने लगा है। और ससुराल वर्ग भी शिक्षित होता है। आज वो अपना पक्ष रखने के लिए घबराती नहीं है। पुरूष वर्ग भी जागरुक हो गया कानून भी गतिशीलता से सहयोग दे रहा है।बहुत से लोगों से सुना है, बहू बेटी की तरह होती है मेरा मानना है यह सिर्फ एक कहावत है असलियत इससे परे है बहू की पूरी ज़िन्दगी परिवार के सदस्यों का ह्दय जीतने में ही बीत जाती है। बेटी के साथ ऐसा नही होता, बेटी की गलतियों को परिवार वाले जितनी आसानी से माँफ कर देते है। उतनी आसानी से बहू को कभी माँफी नही मिलती। बहू उम्मीदों से भरी उस टोकरी के जैसी होती जिसे हर किसी की इच्छा पूरी करनी जरूरी है नही तो उस टोकरी को ठोकर ही पड़ती है। हम कितनी भी कोशिश करे लोगों के मन से यह भेद-भाव नही हटा सकते। माना कुछ बहूऐं भी ससुराल को नही अपना पाती हैं।मगर जो स्त्रियाँ पति के घर व परिवार को पूर्ण रूप से अपना लेती हैं क्या वो उस घर में उस घर की बेटी की जितनी स्वतंत्र होती है? कदापि नही।जिस स्वतन्त्रता से एक बेटी अपने घर में रहती है। जो चाहे करती है। जैसा चाहे पहनती है जो चाहे खाती है। बहू होने के बाद वह दस बार सोचकर वह सब करेगी। कब कौन उससे नाराज़ हो जाये, लोग क्या कहेंगे, बहू के अधिकारों की सीमा आदि आदि कई बाते उसके सामने प्रश्न बनकर आ खड़ी होती हैं। बहू बनते ही एक “औरत” शब्द की जिम्मेवारियों से वह बँध जाती हैं। फिर बहू बेटी समान कैसे हो सकती है बेटी, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित मां पिता उसे कोई कष्ट नही देना चाहते। बहू बेटी के समान नही होती है का एक सरल सा उदाहरण देता हूँ। अविवाहित लड़की के माता पिता को अक्सर आप यह कहते सुन लेगें “कि अरे रहने दो मत कराओ उससे काम ससुराल जाकर तो उसे काम ही करना है जब तक यहाँ है आराम से रहने दो ” इन बातों से ही आप यह मानसिकता को समझ सकते है जहां माँ-बाप भी यह स्वीकारते है और तैयार भी रहते है कि पराये घर जाकर हमारी बेटी पर जिम्मेदारियों का बोझ लादा जाने वाला है।एक दूसरा उदाहरण भी देखियें जब शादी-शुदा स्त्री मायके आती हैं तो माँ पिता उससे कोई काम नही कराते अक्सर बोलते सुना है कुछ दिन को आई है आराम कर ले फिर तो ससुराल जाकर काम ही करना है”। अब हम कैसे कह सकते है कि बहू बेटी के समान होती है। बहू कभी बेटी के समान न मानी गई, न मानी जाती है। 2%परिवार ही ऐसे होगें जो बहू को बेटी के समान मानते हो अन्यथा यह एक मिथक है कि बहू बेटी के समान है। समाज में इस विषय पर हमेशा चर्चा होती है कि दूसरे परिवार से आई लड़की जो बहू है उसे भी बेटी समझा जा़ये पर ऐसा कितने परिवार कर पाते है कितना भी बेटी समझों एक झीना पर्दा बीच में हमेशा रहता है बहू बन कर आई लड़की भी एक बारीक दीवार रखती है। जो ससुराल के मर्यादित जीवन के लिये जरूरी भी है मायके में मां पिता भाई और बहनों के संग बिंदास जीवन जीने वाली लडकी को कुछ सामाजिक रीतियों का पालन करना पड़ता है अब वो किसी की पत्नी है बहू है भाभी है और भी अनेक रिश्ते जो अनजाने ही जुड़ जाते है और उनके प्रति अपने दायित्व का निर्वाह बहू बनी लड़की के लिये बहुत जरूरी है। बेटी कहने और मानने वाले भी उससे बहुत सी अपेक्षायें रखते हैँ कहने का मतलब यही है कि बहू बेटी जैसी होती है पर बेटी नहीं। बेटी बेटी है और बहू बहू मायके में बेटी का व्यवहार और अधिकार बिल्कुल अलग होते हैँ और ससुराल में अधिकार और कर्तव्य बिल्कुल अलग होते हैँ विवाहित बेटी भी मायके में भाभीयों के सामनें अपने अधिकारों को पहचानती है व्यवहार कितना भी स्नेह पूर्ण हो पर बेटी बहू और बेटी के सामाजिक अधिकारों को जल्दी समझ जाती है बडे नाजों से पाला बाबुल तुमनें अब नया नीड़ बसाना है मायके की देहलीज छोड़ ससुराल को अपना बनाना है। बेटी की विदाई की जाती है। वहां ससुराल में बहू का गृहप्रवेश होता है। बेटी-बहू के बीच का अन्तर तुरन्त मिट जाता है। नये परिवार में बहू नयीं उम्मीदों के साथ नये आसमां और जमीन रचती है और बेटी बेटी कह कर सास ससुर उसे बेटी सा मान देते हैं पर ना वो भूलते हैं कि वो बहू है ना बहू ही भूलती है हां ये सच है रिश्ते अपनी जटिलता खो चुके है और बहुत सरल हो गये हैं। आज की बहुयें अपनी जिन्दगी को अपने हिसाब से जीतीं है| किसी की भी दखलन्दाजी के बिना पर मर्यादा और कर्तव्य हमेशा याद रखतीं है कहने का मतलब सीधा है बहू बेटी जैसी है पर बहू है। बेटी बेटी होती है मानों तो दोनों रिश्ते एक से है पर विविधता लिये हुये। एक में अल्हड़ता व दुलार है तो दूजे में दुलार संग कर्तव्य बोध है बहू बेटी है पर विवाह उपरांत इसी घर को अपना बनाने ,पर बेटी विदा होती है दूसरे घर को अपना बनाने। बेटी मान है बहू सम्मान है। बेटी किसी की बहू है तो बहू भी किसी की बेटी है। बहू बहू है बेटी जैसी। बहू बेटी की तरह होती है अर्थात पुत्रवधु अपनी जाई पुत्री के समान होती है” ये शब्द कर्ण प्रिय हो सकते हैं किन्तु मैं इनके अर्थ से बिलकुल सहमत नहीं हूँ। ये सिर्फ स़ुदर अलफाज भर हैं, जो हमारे मन में एक रुनझुन सी मिठास तो भर सकते हैं किन्तु यथार्थ इससे नितांत अलग है। सच यह है कि हर रिश्ते की अपनी एक अलग ही मर्यादा, अलग एक रुप, एक अलग मिठास होती है… विश्वास कीजिये आपकी बेटी जैसा इस संसार में और कोई दूसरा हो ही नहीं सकता, मेरा तो ऐसा ही मानना है।जहाँ आपकी बेटी आपके ह्रदय की धड़कन से जुडी होती है, आपने उसको जन्म दिया है, उसकी रुह में आपका अंश, उसके शरीर में आपका रक्त प्रवाहित होता है । वो आपके संस्कारों पली बड़ी है, आपके खुले आँगन की चहचहाहट, आपकी शान होती है वहीँ बहू अर्थात पुत्रवधु स्वयं में बहुत सुन्दर रिश्ता है जो हम बहुत ही ऐहतियात से निभाते है, उसको हम मर्यादाओं में पिरोते है, उसको अपने संस्कारों से परिचित कराते हैं, उसके बाद भी वो अपनी जड़ों से मुक्त नहीं हो पाती, जो उसके बेटी बनने के मार्ग में व्यवधान बनता है।जब भी हम ईश्वर से प्रार्थना के लिए हाथ उठाते हैं तो उस प्रभु से दोनों के सुख की कामना करते हैं सांसारिक व्यवहार में दोनों ही समान मान पाती है हम हर सांसारिक काम में बहू को प्राथमिकता देते हैं अंतर बस इतना सा है बहु का ख़याल रखना हमारा कर्तव्य होता है जबकि बेटी का ख्याल स्वाभाविक तौर पर ही रहता है आज के वक़्त में बेटी को हम कहीं भी कभी भी उसकी गलती के लिए डाट सकते हैं समझा सकते हैं जबकि बहु के लिए हमें दस बार सोचना पड़ता है आज हमारे समाज में खुले वृद्धाश्रम हमारे समाज के हर घर की कहानी बयान करते हैं। काश बहु बेटी बन पाती हमारे दैनिक जीवन की कितनी सारी बातें हैं जो हमको प्रतिपल बेटी और बहु में अंतर का एहसास कराती हैं जिनको हम शब्दों में चित्रित नहीं कर सकते हम बहु को बेटी पुकार तो सकते हैं किन्तु बेटी बना पाना संभव नहीं है क्योंकि हमारा ये प्रयास कभी ना कभी असफल होकर हमे सत्यता का भान करा ही देता है। बहू हमारे घर की मालकिन होती है और बेटी दिल की ये सचचाई हम कभी झुठला नहीं सकते बेटी के लिए हमारे अंतर्मन में हमेशा एक डर बना रहता है की अपने घर में खुश भी है या नहीं बहु को खुश रखना हमारे खुद के ऊपर निर्भर करता है यह सच्चाई मान लेने में कोई ज्यादती नहीं कि बेटी सात समंदर पार रह कर भी हमारे सुख दुःख की साझेदार रहती है जबकि बहु एक ही छत के नीचे हमारे पास रहते हुए भी हमसे दूर होती है काश बहु बेटी बन सकती तो आज कहीं भी वृद्धाश्रम नहीं होते। अतः मैं कहना चाहूंगा कि हर रिश्ते नाते का रूप रँग जुदा जुदा होता है बहू बहू ही रहती है न तो हम ही उसको बेटी बना पाते हैं और न ही वो कभी बेटी बन पाती है। कहने को हम बेशक कुछ भी कह लें किन्तु जनाब बेटी बेटी है और बहू बहू है। बहू बेटी का भेद भाव समाप्त हो जाता घर से क्लेश भी समाप्त हो जाता किसी सास ससुर को वृधाआश्रम जाने की नौबत नहीं आती। घर स्वर्ग या नर्क के समान बनाना सास पर निर्भर करता है।