आखिर स्पर्श क्यूँ?
किसी स्त्री के प्रति उभरता पुरूष का प्यार तब तक प्यार है, जब तक प्रेम जाल में फंसी वो स्त्री को स्पर्श ना करले, जब तक वो स्त्री स्पर्श को छू नहीं पाता उसके लिए वो सब कुछ होती है, जैसे ही स्त्री उस पर भरोसा करती है अपनी दुनिया समझने लगती है और अपना सब कुछ तन-मन तक सौप देती है, अचानक से वो उसे घिनौनी लगने लगती है, चरित्र हीन लगने लगती है।
उस स्त्री ने तो उसे भगवान माना अच्छा-बुरा कुछ सोचा ही नहीं, लेकिन पुरूष तो प्यार करता ही नहीं था वो तो सिर्फ और सिर्फ उसके शरीर को पाना चाहता था,
उसकी जज्बात उसका प्यार या उसका सम्मान उसके लिए सब एक दिखावा है। वो बस यही तक आना चाहता किसी अन्य स्त्री के साथ। अगर पुरूष इतना ही पवित्र होता तो क्यूँ वो हर स्त्रियों को वासना की नजर से देखता ? क्यूँ छूना चाहता हर औरत को ? जिन हाथों से वो किसी परायी औरत को छूता है फिर क्यूँ उन्ही हाथों से अपनी पत्नी को छूता है..? अगर एक पुरुष के छूने से एक औरत अपवित्र होती है तो उस औरत को छूकर पुरूष कैसे पवित्र रह जाता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है....?
उन्ही अपवित्र हाथों के छूने से उसकी बीवी उसकी बेटी कैसे पवित्र रह सकती हैं ! क्या वो कभी भी सोचा? जो खेल वो घर से बाहर हर दूसरी औरतों के साथ खेलना चाहता हैं, अगर वही खेल उनकी अपनी बीवी या बेटी के साथ कोई खेल रहा हो तो, क्या वो उनको अपना पायेगा या फिर अपने आप को माफ कर पायेगा ? जो पुरुष ऐसे हैं मैंने पोस्ट मे सिर्फ उनकी ही बात की है सब खुद पर अन्यथा ना लें। यह बात सही है या गलत शायद ये बात बहुत सी औरतें अच्छे से समझेंगी ज़िनके साथ ऐसा हुआ है या हो रहा है। हमारे भारतीय समाज में बहू-बेटियों को आज भी आज़ादी के साथ जिने का हक नहीं दिया गया है भले ही हर क्षेत्र में भारतीय महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। हमारा भारतीय पुरुष समाज किसी बहू-बेटियों को अपनी प्रेम जाल में फंसा शारीरिक सम्बन्ध बनाता है तो दोषी करार समाज की बहू-बेटियां आखिर क्यूँ? उन बहू-बेटियों को जितनी हेय दृष्टि से हमारा भारतीय समाज देखता पुरुषों को क्यूँ नहीं?
सामंजस्य से स्थापित प्रेम सम्बन्ध जब समाज के सामने आने लगता है तब भी हमारा समाज उन बहू-बेटियों को ही दोषी करार देकर ताने-बाने मारना शुरू कर देता है। अगर सामंजस्य से स्थापित प्रेम सम्बन्ध भी नाजायज़ है तो दोष उस पुरुष का भी तो है जो उन बहू-बेटियों को प्रेम वासना के लिए उत्तेजित करते हुए स्पर्श करता है। जब सामंजस्य से स्थापित प्रेम सम्बन्ध का भी भनक समाज तक जाता है तब वो पुरुष नही बल्कि वो स्त्री के ऊपर समाज का हर वर्ग छींटाकसी शुरू कर देता है जबकि कोई इस प्रेम वासना से अपने आप को अछूता रखना भी नहीं चाहता। यहां तक कि आज साधू-सन्यासी भी स्त्री स्पर्श प्रेम वासना की भवर-जाल से अछूते बहुत ही कम देखने को मिल रहे हैं। स्त्रियों में काम-वासना रोकने की छमता पुरुषों की तुलना में दस गुना अधिक पायी जाती है स्त्री किसी पुरुष की अंतिम प्रेम बनने की इच्छा लिए अपने को समर्पित करती हैं वहीं पुरुष ठीक इसके विपरीत भाव से पर स्त्री को अपने प्रेम जाल में फंसा शारिरिक शोषण कर दरकिनार कर देता है। किसी पुरुष पर जब कोई स्त्री किसी भी तरह अपना सर्वस्व अर्पित कर दें तब उस पुरुष को सर्वस्व अर्पित करने वाली स्त्री को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर सम्पूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए। अगर पत्नी के रूप में स्वीकार करने की छमता न हो तो स्पर्श से दूर रहना अपनी कामवासना पर नियंत्रण रखना हर पुरुष का धर्म है।