हज और ईद उल अजहा, खुदा की इताअत, आज्ञा पालन, समर्पण, कामिल बंदगी का बे मिसाल मंजर

जिशान अहमद काजमी✍️
हज दरहकिकत खुदा के सामने उस सर ज़मीन में हाज़िर होकर जहां नबियो, रसूलो,पैगंबरो, और  नेक लोगो ने हाजिर होकर अपने ईश,आज्ञा पालन,पालन का एतराफ किया।अपने आज्ञा पालन का प्रण हैं और उन स्थानों में खड़े होकर और चल कर खुदा/ अल्लाह के सम्मुख अपने पापो/ गुनाहों से तौबा करना,और अपने पालन कर्ता, प्रभु को मानना है,ताकि वह हमारी और उन्मुख होने के लिए हर समय तैयार रहे। यह करुणा, दया,और रहमत का सागर है। यही कारण है कि पैगंबर ए इस्लाम, (मोo  स, व ) ने फरमाया, हज और उमराह,गुनाहों से इस तरह साफ कर देता है जिस तरह भट्टी लोहे,सोने, चांदी,के मैलखोर, को साफ कर देती है। जो मोमिन इस दिन को, यानी अरफे के दिन। अहराम की हालत में गुजारता है,उसका सूरज  डूबता है तो उसके गुनाहों को लेकर डूबता है। और बहुत सी हदीस के अनुसार,जिनमे निष्ठा पूर्वक हज अदा करने वालो को रहमत, व मगफिरत / मोक्ष,मुक्ति, की शुभ सूचना सुनाई गई है।तमाम शुभ सूचनाओं से साबित/प्रमाणित होता है कि हज दर हकीकत तौबा, और इनाबत/पश्चाताप, प्रायश्चित है। तवाफ में, सईद में, सफा पहाड़ पर, मुजदल्फा में अराफात में, मीना में,दीगर मकामात,हर जगह जो भी दुआए मांगी जाती है। उनका बड़ा हिस्सा अल्लाह से तौबा करना,और इस्तगफार का होता है। यद्यपि तौबा से हर जगह गुनाह मुआफ होते है।इस लिए अराफात काबा, की कोई शर्त नहीं लेकिन.... हज के प्रतीक स्थल और अनुष्ठान,अपने विभिन्न प्रभावो के कारण जो यहां के अलावा अन्य जगह उपलब्ध नहीं है। सच्ची तौबा के लिए बेहतर एवम उचित अवसर प्रदान करते है। 
जहां हजरत आदम अलैयo और हजरत अम्मा हव्वा अलैo ने अपने गुनाहों की माफी की दुआ की थी। हजरत इब्राहिम अलैयo ने अपनी  और अपनी औलाद के लिए दुआए मांगी, जहां हजरत हुद अलैयo और हजरत सवालेह अलैयo ने अपनी कौम की तबाही के बाद अपनी पनाह ढूंढी। जहा हजरत मो o स अ, ने खड़े होकर अपने और अपनी उम्मत के लिए दुआएं मांगी।कही स्थल,कही प्रतिक,और दुआओ के वही अरकान,हम गुनहगारो की दुआए, व महफीरत के लिए कितने अनुकूल है, जहां नाबियो पर बरकते,और रहमते नाज़िल हुई।वह माहौल वह फिज़ा/वातावरण, और तमाम गुनहगारो का एक जगह जमा होना,कोई ज़ात बिरादरी, फिरका, काला गोरा,अमीर गरीब कोई फर्क नही बस,अल्लाह के बंदे,एक जगह जमा होकर,अल्लाह के सामने रो रो कर गिड़गिड़ाकर, दुआ मांगने,समर्पण,कदम बा कदम आध्यात्मिक आलोकन,,दुआ और उसके असरात/प्रभाव, इसके कुबूल होने का बेहतरीन अवसर प्रदान करते है। ये वो अज़ीम मंजर है जहा पत्थर से पत्थर दिल भी, इन हालात और अवलोकनो के बीच, मोम बनने को तैयार हो जाते है। और इंसान इस अब्र ए करम/ करुणा वर्षा, की छींटों से सैरयाब हो जाता है।जो अल्लाह के नेक बंदों पर अर्श ए इलाही से बरसता रहता है। मानव मनोविज्ञान यह है और दैनिक अनुभव इसका साक्षी है कि इंसान अपनी जिंदगी में किसी व्यापक एवम महत्वपूर्ण परिवर्तन के लिए हमेशा जिंदगी के किसी मोड़ एवम सीमा रेखा को तलाशता है,जहा पहुंच कर उसकी पिछली और आइंदा जिंदगी के दो विशिष्ट हिस्से पैदा हो जाये। इस लिए लोग अपने परिवर्तन के लिए जाड़ा,गर्मी,बरसात, का इंतजार करते है।बहुत से लोग शादी के बाद,या संतान प्राप्ति के बाद,या शिक्षा ग्रहण के बाद,किसी नौकरी,या किसी बड़ी कामयाबी  या किसी खास यात्रा,या किसी के मुरीद/ शिष्य,हो जाने के बाद,पूर्व की अपेक्षा बदल/ परिवर्तित हो जाते है।या अपने आपको बदल लेने पर समर्थ,हो जाते है।क्योंकि ये उनकी जिंदगी की महत्व पूर्ण  घटनाएं उनकी अगली और पिछली जिंदगी में विभेद रेखा डाल देती है।जहा से इधर या उधर मुड़ जाना संभव हो जाता है।हज दर हकीकत इसी तरह इंसानी जिंदगी की पिछली और आगामी जिंदगी के बीच एक सीमा रेखा का काम करती है जो उसकी जीवन शैली को परिवर्तित करने का कार्य करती है। सुधार एवम परिवर्तन की और अपनी जिंदगी के पाट/ बदल देने का अवसर प्रदान करता है।जीवन का बिता अध्याय बंद होकर,उसका नवीन अध्याय खुल जाता है।बल्कि यूं कहना चाहिए वह इसके बाद अपने नए आमाल/ कर्म,के लिए नए सिरे से पैदा होता है।        इसीलिए पैगंबर मोo स व ने फरमाया जिसने खुदा के लिए हज किया और उसमे वासना पूर्ति नहीं की और न कोई गुनाह किया तो वह ऐसा होकर लौटता है जैसे उस दिन था,जिस दिन उसकी मां ने उसे जन्म दिया,अर्थात एक नया जीवन शुरू करता है।जिसमे दीन व दुनिया दोनो जहां की भलाईया जमा और दोनो जहां की  कामयाबिया शामिल होगी। ईद उल अजहा, इब्राहिमी मिल्लत की असल बुनियाद कुर्बानी थी और यही कुर्बानी हजरत इब्राहिम अलैय की पैगंबराना और रूहानी जिंदगी की विशिष्टता थी। इसी परीक्षा में पूरा उतरने के कारण वे और उनकी औलाद हर किस्म की नेयमतो और बरकतो से मालामाल  की गई। लेकिन यह असल कुर्बानी क्या थी.... । यह महज़ खून और गोश्त की कुर्बानी न थी.... बल्कि रूह और दिल की कुर्बानी यह अपने प्रियतम/ अल्लाह को समर्पित कर देना था। यह अल्लाह की इताअत,आज्ञा पालन भक्ति,समर्पण, कामिल बंदगी का बेमिसाल मंजर था। यह समर्पण शुक्र व सब्र की वह परीक्षा थी जिसे पूरा किए बगैर दुनिया की पेशवाई और आखिरत की नेकी नही मिल सकती। यह एक बाप का अपने इकलौते बेटे के खून से ज़मीन को रंगीन कर देना नही था बल्कि खुदा के सामने अपनी तमाम भावनाओ, इच्छाओं,अभिलाषाओं, के बलिदान/  कुर्बानी की और खुदा के हुक्म के सामने अपने हर किस्म के इरादे और मर्जी को खत्म कर देना था। वास्तव में यही है की हज एवम ईद उल अजहा,तथा खुदा की इताअत,आज्ञा पालन,समर्पण,कामिल बंदगी का बेमिसाल मंजर,आलम ए इंसान के लिए ता कयामत तक,एक अमल और एक सबक.... ।।
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