स्त्री पूज्यनीय क्यों?

अमित श्रीवास्तव 
धर्म शास्त्रों सहित तमाम धार्मिक सीरीयल में भी दिखाया जाता है ब्रम्हा विशणु महेश की उत्पत्ति के पीछे कोई स्त्री शक्ति है। ब्रह्मांड में विचरण करने वाली आदि शक्ति दुर्गा ब्रह्मणी द्वारा त्रिदेवों की उत्पत्ति, श्रृष्टि की उत्पत्ति, देव दानव मानव की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। स्त्री के बिना पुरुष अधूरा पुरुष के बिना स्त्री अधूरी इसका अद्भुत उदाहरण है शिव की शक्ति पार्वती, एक समय त्रिदेवों में ब्रह्मा को अहंकार हुआ श्रृष्टि की रचना मुझसे है मै बड़ा उस समय विष्णु जो अलग अलग रुपों में पृथ्वी पर अवतार लेने वाले हैं ने शिव के पास जाकर समाधान का आग्रह किया तब सभा में बीन बुलाये शिव आकर ब्रम्हा को बहुत समझाने का प्रयास किया अहंकार बढ़ता देख शिव जी ब्रम्हा के पांचवें अहंकारी सर को काट शक्ति का आवाह्न किया। उस समय स्त्री स्वरुपा आदि शक्ति प्रकट हो तीनों देवों उनकी उत्पत्ति और उदेश्य को बताते हुए अपने ही एक एक रुप त्रिदेवों को प्रदान कर पूर्ण किया, एक स्त्री रूप सरस्वती का जन्म दाता ब्रम्हा को, दूसरा रूप लक्ष्मी पालन कर्ता विष्णु और तीसरा रुप स्वयं संहार कर्ता शिव को प्रदान की। जब शिव की शक्ति दूसरा जन्म ले सती अपने शरीर का त्याग की तब शिव शक्ति विहीन हो गए और देवता दानवों से पराजित होने लगे थे। शक्ति बिना शिव का अपूर्ण होना और देवासुर संग्राम से आप अवगत ही हैं। एक कथा विशणु अवतार श्रीकृष्ण और सत्यभामा पर आते हैं। एक बार सत्यभामा ने कृष्ण से पूछा, मैं आप को कैसी लगती हूँ ? कृष्ण ने कहा, तुम मुझे नमक जैसी लगती हो। सत्यभामा इस तुलना को सुन कर क्रोधित हो गयीं, तुलना भी की तो किस से। आपको इस संपूर्ण विश्व में मेरी तुलना करने के लिए और कोई वस्तु, पदार्थ नहीं मिला। तब कृष्ण ने उस वक़्त तो किसी तरह सत्यभामा को मना लिया और उनका गुस्सा शांत कर दिया। कुछ दिन पश्चात कृष्ण ने अपने महल में एक भोज का आयोजन किया छप्पन भोग की व्यवस्था हुई। सर्वप्रथम सत्यभामा से भोजन प्रारम्भ करने का आग्रह किया कृष्ण ने। सत्यभामा ने पहला कौर मुँह में डाला मगर यह क्या - सब्जी में नमक ही नहीं था। कौर को मुँह से निकाल दिया। फिर दूसरा कौर मावा-मिश्री का मुँह में डाला और फिर उसे चबाते-चबाते बुरा सा मुँह बनाया और फिर पानी की सहायता से किसी तरह मुँह से अंदर किया, अब तीसरा कौर फिर कचौरी का मुँह में डाला और फिर.... आक्.... थू। तब तक सत्यभामाजी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था। जोर से चीखीं.... किसने बनाई है यह रसोई ? सत्यभामा की आवाज सुन कर लीलाधर कृष्ण दौड़ते हुए सत्यभामाजी के पास आये और पूछा क्या हुआ देवी ? कुछ गड़बड़ हो गयी क्या ? इतनी क्रोधित क्यों हो ? तुम्हारा चेहरा इतना तमतमा क्यूँ रहा है ? क्या हो गया ? एक साथ कई सवाल फिर सत्यभामा ने कहा किसने कहा था आपको भोज का आयोजन करने को ? इस तरह बिना नमक की कोई रसोई बनती है क्या ? आज किसी रसोई में नमक नहीं है। मीठे में शक्कर नहीं है। एक कौर नहीं खाया गया। श्रीकृष्ण ने बड़े भोलेपन से पूछा, तो क्या हुआ बिना नमक के ही खा लेती । सत्यभामाजी फिर क्रोधित होकर बोली कि लगता है दिमाग फिर गया है आपका ? बिना शक्कर के मिठाई तो फिर भी खायी जा सकती है मगर बिना नमक के कोई भी नमकीन वस्तु नहीं खायी जा सकती है। तब मुरलीधर श्रीकृष्ण ने कहा तब फिर उस दिन क्यों गुस्सा हो गयी थी जब मैंने तुम्हे यह कहा कि तुम मुझे नमक जितनी प्रिय हो। अब सत्यभामाजी को सारी बात समझ में आ गयी की यह सारा वाकया उसे सबक सिखाने के लिए था और उनकी गर्दन झुक गयी ।
कथा का मर्म- स्त्री जल की तरह होती है, जिसके साथ मिलती है उसका ही गुण अपना लेती है। स्त्री नमक की तरह होती है जो अपना अस्तित्व मिटा कर भी अपने प्रेम-प्यार तथा आदर-सत्कार से परिवार को खुबसूरत बना देती है। माला तो आप सबने देखी होगी। तरह-तरह के फूल पिरोये हुए पर शायद ही कभी किसी ने अच्छी से अच्छी माला में अदृश्य उस "सूत" को देखा होगा जिसने उन सुन्दर सुन्दर फूलों को एक साथ बाँध कर रखा है। लोग तारीफ़ तो उस माला की करते हैं जो दिखाई देती है मगर तब उन्हें उस सूत की याद नहीं आती जो अगर टूट जाये तो सारे फूल इधर-उधर बिखर जाते है। स्त्री उस सूत की तरह होती है जो बिना किसी चाह का, बिना किसी कामना का, बिना किसी पहचान का, अपना सर्वस्व खो कर भी किसी के जान-पहचान की मोहताज नहीं होती है और शायद इसीलिए दुनिया श्रीराम के पहले सीताजी को और कान्हाजी के पहले राधा रानी को याद करती है। अपने को विलीन कर के पुरुषों को सम्पूर्ण करने की शक्ति ईश्वर ने केवल स्त्रियों को ही दी है। इसलिए स्त्री पूरे जगत में पूज्यनीय है। श्रृष्टि संचालिका, जगत जननी, आदी शक्ति स्वरूपा विश्व की सम्पूर्ण स्त्रियों को शत-शत नमन।
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