श्रावण- मास, लुप्त होती हमारी परम्पराएं
श्रावण के मौसमी रिमझिम बारिश की शुरुआत होते ही बीते जमाने की 'सावन' महीने की याद ताजी हो जाती है। वैसे तो अब पिछले जमाने जैसी न बारिश हो रही है न ही लग रहा है आज के मौसम को देखते हुए की यह श्रावण का महिना है। तिलमिला देने वाली धूप श्रावण की रौनक ही कम कर रही है। रिमझिम सावन की बारिश में दिल और दिमाग कंधे पर कावड़ लिये पद यात्रा, बोल बम के नारा बा बाबा एक सहारा बा, तरह-तरह के शिव भक्ति से लबालब व वाहनों से बोल बम, भोले का जयकारा- हर-हर बम, बोल बम करते शिवभक्तों की आवाज सुनकर मन अनायास ही शिवमय हो जाता है। जगह-जगह शिवालयों पर पूरी सावन भक्तिमय रहता है। बिहार राज्य के बैजनाथ धाम का तो बात ही अलग है पूरे एशिया का सबसे बड़ा श्रावण मेला झारखंड राज्य के सुल्तानगंज से शुरू झारखंड बिहार की पांच जिलों की पद यात्रा कर कांवर को कंधे पर सुशोभित देवघर बाबा भोलेनाथ की नगरी यहां से बांसुकी नाथ कितना आनंदमय लगता है, कोरोना के आते और मंहगाई की मार आज सब बिरान करने लगा है। इन पहाडिय़ों में जीवन यापन करने वाले श्रावण मास में शिव भक्तो की सेवा कर जो भी कमाई करते हैं उसी से इन पहाडियों में रहने वालो का पूरे साल मुख भोजन चलता है। कोविड़ १९ के आते ही दो-तीन साल कांवड़ यात्रा बन्द के कारण इन लोगों की दशा खराब हो गई है। श्रावण मास में कांवड़ यात्रा कितना आनंदमय लगता है इसकी बखान तो सब शिव भक्त जानते हैं। यात्रा में भोलेनाथ की जय जयकार सोच, पल-पल मन विभोर हो जाता है। कण-कण में भोलेनाथ, देवों के देव महादेव, कालों के काल महाकाल का बास, गुणगान, वर्णन, अद्भुत क्षमता प्रदान करता है। कोरोना काल में बीते तीन श्रावण के बाद इस श्रावण में बाबा भोलेनाथ की पहले वाली सावन की याद आते ही मेरा मन मचल अतीत में खो गया। इस श्रावण बहुत तलाशा गांवों में यदा-कदा झूले तो दिख गये लेकिन वह सावन की कजरी व आल्हा के गीतों की गूँज यदाकदा ही सुनने को मिल रही है। कोविड़ काल में सरकारी आदेश सावन में कांवड़ यात्रा, सड़कों पर शिव भक्तों की भीड़ बंद और शिवालयों में गंगाजल से जलाभिषेक - हर हर, बम बम, भोलेनाथ की गूँज भी सुनाई कम पड़ रही थी। कोरोना काल से इस सावन अधिकांश घरों मे हाथों में मेहँदी एवं पैरों में मेहावर लगाये गाँव का परिवेश बहुत कम दिखाई पड़ रहा है। पुराने जमाने की अपेक्षा अब बादलों की गड़गहाट के साथ सावन की बौछार तो बहुत कम हो गई है साथ ही धान की रोपाई करती महिलाओं के मधुर गीत खेतों में न के बराबर सुनाई पड़ रही है।
बीते जमाने में जब वरसात के दिनों में वर्षा कम होती थी, तब गांव के छोटे-छोटे बच्चों का ग्रुप नंगे हो हर दरवाजे पर जाकर कहते थे - काठ-कठौती पियरी धोती मेधा सारे पानी में। हर घर-घर से लोग बच्चों के ऊपर पानी डालते थे और बच्चे दरवाजे पर कीचड़ कर अगले दरवाजे जाते यह करने के बाद अक्सर मेध देव प्रसन्न हो बर्षा करते। यह तो परम्परा बिल्कुल ही लुप्त हो रही है। अब तो गाँव की गलियों में ससुराल से गुड़िया या नागपंचमी मनाने आई लड़कियों की किलकारियां भी बहुत कम सुनाई पड़ रही है। व्यस्तता के दौर में हमारे तमाम महत्वपूर्ण पर्व त्यौहार औपचारिक होते जा रहे हैं। अब गाँव मुहल्लों में लड़कियों द्वारा गुड़िया डालने और युवाओं द्वारा उन्हें पीटने की परम्परा भी अंतिम साँस ले चूंकि है। वैसे सावन के महीने का विशेष महत्व बताया गया है खासतौर से शिवभक्तों, वीर युवाओं व लड़कियों के लिये विशेष महत्व रखता है। हमारी एक ऐतिहासिक परम्परा भाई बहन का अटूट रिश्ता इसी सावन माह में आता है। जो विश्व में आज भी एक मिशाल बनकर सावन की गरिमा को जीवंत बनाये हुये है। बीते जमाने से तुलना में रौनक कम किन्तु रक्षा बंधन का पर्व आज भी पूरी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है और लाख मूसलाधार बरसात व विपरीत परिस्थितियाँ भी बहनों को भाइयों के पास आने-जाने से नहीं रोक पाती है। चहुंदिश फैली हरियाली व मौसम को और रंगीन बना देती है। साथ ही जब रिमझिम सावन की बरसात होती है तो मन में उमंग पैदा कर देती है।
एक समय वह भी था जब गाँवों में एक नहीं अनेकों झूले पड़ते अपने-अपने ससुराल से आयी लड़कियों के साथ बच्चे बूढ़े सभी पैगें मारकर आनन्द लेते थे। नाग पंचमी के दिन गाँव गाँव दगंल होते थे जिनमें गाँव के होनहार लड़के कुश्ती लड़कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते थे। हमें अपनी संस्कृति को लुप्त होने से बचाना होगा। क्योंकि..? हमारी संस्कृति व हमारी परम्पायें ही विश्व में हमारी पहचान है।